सोचने लायक बना दिया है…
~ आनंद किशोर मेहता
जब लोग मेरी कमियाँ गिनाने में व्यस्त होते हैं,
तब मैं मुस्कुरा कर यह समझ जाता हूँ —
मैंने उन्हें सोचने लायक कुछ तो दिया है।
किसी को चुभी है मेरी बात,
किसी को खटक गया मेरा बदलाव,
और किसी को झुकना पड़ा अपने अहम के सामने।
क्योंकि,
जो कुछ भी हमें भीतर से हिला दे — वो साधारण नहीं होता।
रिश्ते कभी कुदरती मौत नहीं मरते।
इन्हें मारता है इंसान खुद —
नफरत से,
नजरअंदाज़ से,
और कभी-कभी, सिर्फ एक गलतफहमी से।
कभी-कभी सोचता हूँ —
मुझे क्या हक है कि किसी को मतलबी कहूं?
मैं खुद रब को सिर्फ मुसीबत में याद करता हूँ!
तो फिर दूसरों के स्वार्थ पर क्यों उंगली उठाऊँ?
हम जब किसी की सफलता को स्वीकार नहीं कर पाते,
तो वह हमारे भीतर ईर्ष्या बनकर जलती है।
और जब उसे अपनाकर देखें —
तो वही सफलता प्रेरणा बन जाती है।
मैं अक्सर जिनके झूठ का मान रख लेता हूँ,
वो सोचते हैं, उन्होंने मुझे बेवकूफ़ बना दिया।
पर उन्हें यह कौन समझाए —
मैंने रिश्ते की मर्यादा बचाई, ना कि अपनी मूर्खता दिखाई।
कोई दवा नहीं है उन रोगों की,
जो तरक्की देखकर जलने लगते हैं।
क्योंकि ये रोग शरीर से नहीं,
मन और आत्मा से उपजते हैं।
मीठा झूठ बोलने वाले, सबके चहेते बनते हैं।
लेकिन जो सच को साफ-साफ कह दे,
हर हफ्ते एक-दो रिश्ते साफ़ कर देता है।
शायद इसीलिए,
सच बोलने वालों की दुनिया छोटी होती है,
मगर आत्मा बहुत शांत होती है।
और फिर एक दिन…
कुछ लोग अचानक बदल नहीं जाते,
बल्कि
आपको धीरे-धीरे समझ आता है
कि वो कभी आपके थे ही नहीं।
बहुत फ़र्क होता है 'ज़रूरी' और 'ज़रूरत' में।
कभी-कभी हम लोगों के लिए सिर्फ 'ज़रूरत' होते हैं…
ज़रूरी नहीं।
यह एहसास देर से होता है,
मगर जब होता है — बहुत कुछ बदल जाता है।
और फिर भी,
हर उस शख्स को सुकून देना सीख लिया है मैंने,
जो अपनी हालत किसी को बता नहीं सकता।
क्योंकि मैं जानता हूँ —
सच्चा रिश्ता वो नहीं जो दिखे,
बल्कि वो है जो बिन कहे भी समझे।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
"मैं जरूरी था या बस एक जरूरत?"
~ आनंद किशोर मेहता
कभी हँसी में छुपे आँसू,
कभी चुप्पी में बसा सवाल,
मैं हर बार देता रहा जवाब,
जब भी टूटा कोई ख़याल।
लोग कहते रहे — कमी है मुझमें,
मैं सुनता रहा — समझता रहा,
क्योंकि जो सच कहता है खुलकर,
वो अक्सर अकेला रहता रहा।
मैंने रिश्तों को सींचा मन से,
पर वो समझे नहीं मेरी बात,
कुछ ने मतलब निकाला मुझसे,
कुछ ने छोड़ दिया हर बार की तरह चुपचाप।
कभी-कभी सोचता हूँ —
क्या मैं सच में था जरूरी?
या बस एक जरूरत…
जो पूरी होते ही बन गया फिजूल सी दूरी?
मेरे हिस्से आईं थीं कुछ परछाइयाँ,
जिनमें उम्मीदें थीं मगर रोशनी नहीं,
मैं हर दर्द में मुस्कराया,
पर किसी ने पूछा —
"तू ठीक तो है?" ऐसा कभी नहीं।
अब एक वादा खुद से किया है,
कि मैं हर उस शख्स को सुकून दूँगा,
जो मुस्कुराता है बाहर से,
पर भीतर रोज़-रोज़ टूटता है,
झुकता है, झूझता है।
मैं अब न किसी से शिकायत करूँगा,
न उम्मीद से रिश्तों को तौलूँगा,
बस सच रहूँगा —
चाहे जितना अकेला रहूँ,
क्योंकि झूठी महफिलों से तो
खामोशी ही बेहतर होगी एक दिन जरूर।
© 2025 ~ आनंद किशोर मेहता. All Rights Reserved.
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